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एकाग्रता और विक्षेप
जो लोग खेल-कूद मे सफल होना चाहते हैं वे किसी एक धारा या एक विषय को चून लेते हैं जो उन्हें पसंद आये या उनकी प्रकृति के अनुकूल होरा हैं अपनी पसंद के बीषय पर पूरी तरह से एकाग्र होते हैं और इस बात का खास ख्याल रखते हैं कि अपनी शक्तियों को इधर-उधर न बिखरे । जैसे जीवन में आदमी अपनी जीविका के लिये एक खास मार्ग चून लेता है और अपना सारा ध्यान उसी पर लगा देता हैं, उसी तरह खिलाडी भी किसी विशेष खेल या शारीरिक क्रिया को चून लेता है और उसमें भरसक पूर्णता पाने के लिये पूरे प्रयास को एकाग्र कर देता है । यह पूर्णता साधारणत: एक ही गति को बार-बार करते रहने से सहज प्रतिवर्तन क्रिया के रूप में आती है । परंतु, अपने हित में, इस सहज प्रतिवर्तन क्रिया का स्थान एकाग्र मनोयोग ले लेता है । एकाग्रता की यह क्षमता केवल बौद्धिक क्रियाओं में ही नहीं बल्कि सब प्रकार के क्रिया-कलाप में हो सकती है और यह शक्तियों पर सचेतन रूप से अधिकार करने से आती हैं ।
यह जानी हुई बात हैं कि मनुष्य का मूल्य उसके केंद्रित मनोयोग की क्षमता के अनुपात मे होता है, एकाग्रता जितनी अधिक होती हैं परिणाम भी उतना ही असाधारण होता है, यहांतक कि पूर्ण और अविरत एकाग्र मनोयोग अपने काम पर प्रतिभा की मुहर लगा देता है । अपनी ही अन्य गतिविधियों की तरह खेल-कूद में मी प्रतिभा हो सकती हैं ।
तो क्या हम एकाग्रता की पूर्णता पाने के लिये अपनी क्रियाओं को एक ही क्रिया तक सीमित रखने की सलाह दे सकते हैं?
सीमित करने के लाभ तो जाने हुए हैं, लेकिन उसकी असुविधाएं भी हैं, सीमा संकीर्णता लाती है और अपनी चुनी हुई दिशाओं को छोड्कर अन्य दिशाओं मे अक्षमता लाती है । यह पूर्ण विकसित और सामंजस्यपूर्ण मानव के आदर्श से उलटी बात हैं । इन परस्पर-विरोधी वृत्तियों में कैसे मेल बैठाया जाये?
समस्या का एक ही समाधान मालूम होता हैं । जैसे कोई विधिवत् रूप से वैज्ञानिक और क्रमिक प्रशिक्षण दुरा मांसपेशियों को विकसित करता है, उसी तरह वैज्ञानिक और विधिवत् प्रशिक्षण के द्वारा एकाग्र मनोयोग की क्षमता को भी इस तरह विकसित किया जा सकता ३ कि स्वेच्छा से किसी भी विषय या किसी भी क्रिया पर एकाग्र हुआ जा सके । इस तरह तैयारी का काम धीरे-धीरे, लगातार एक ही क्रिया को दोहराते हुए अवचेतना मे करने की जगह, सचेतन रूप से इच्छा-शक्ति को एकाग्र करके और मनोयोग को किसी एक बिंदु पर अपनी योजना और निक्षय के अनुसार केंद्रित करके किया जाता हैं । सबसे बड़ी कठिनाई है भीतरी और बाहरी परिस्थितियों की परवाह न करते हुए एकाग्रता की यह क्षमता प्राप्त करना-यह शायद कठिन हैं पर दृढ़ निक्षय
करनेवाले अध्यवसायी के लिये असंभव नहीं हैं । और फिर, विकास का चाहे जो मार्ग अपनाया जाये, सफलता के लिये दृढ़ निक्षय और अध्यवसाय अनिवार्य हैं ।
प्रशिक्षण का उद्देश्य हैं मनोयोग को केंद्रित करने की एक ऐसी क्षमता को विकसित करना जो इच्छा के अनुसार किसी भी विषय पर अत्यंत आध्यात्मिक सें लेकर अत्यंत जड़-भौतिक तक अपनी शक्ति की पूर्णता मे से कुछ भी खोये बिना लगा सके, उदाहरण के लिये, भौतिक क्षेत्र में, अपनी शक्ति को एक खेल सें दूसरे खेल की ओर, एक क्रिया से दूसरी क्रिया की ओर समान रूप से सफलता के साथ लगा सकना । किसी खेल या उत्तोलन, कलाबाज़ी, मुक्केबाजी, दौड़ आदि शारीरिक क्रियाओं में जिस एकाग्रता की जरूरत होती हैं, सभी शक्तियों को इनमें से किसी गति पर केंद्रित करने से शरीर में जो आनंद की लहर आती हैं, वही अपने साथ क्रिया की पूर्णता और सफलता लाती हैं। साधारणत: यह तब होता हैं जब खिलाडी किसी खेल या क्रिया में विशेष रस लेता हैं और उसकी घटना सब प्रकार के संयम, निर्णय या संकल्प को पार कर जाती हैं ।
फिर भी एकाग्र मनोयोग के समुचित प्रशिक्षण के द्वारा व्यक्ति इच्छा, या यूं कहें, आदेश के अनुसार इस स्थिति को ला सकता हैं, और फलस्वरूप किसी भी क्रिया को संपादित करने की पूरी-पूरी क्षमता अनिवार्य रूप से आ जाती हैं ।
हम अपने 'शारीरिक शिक्षण-विभाग' में ठीक इसी चीज के लिये प्रयास करना चाहते हैं । अन्य प्रक्रियाओं की अपेक्षा इस प्रक्रिया से परिणाम ज्यादा धीमे आ सकते हैं, परंतु तेजी की यह कमी निश्रित रूप से अभिव्यक्ति की पूर्णता और प्रचुरता द्वारा पूरी हो जायेगी ।
('बुलेटिन', अप्रैल १९४९) २३५
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